आमद तो बस बारिश की !

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कभी तीन, तो कभी चार महीने सूना आसमान, सूखी धरती को दिलासे देता रहता है। रूखी हवाएं थकी-सी लड़खड़ाती चक्कर खाती रहती हैं। गुड़-धानी की आस में जाने कितनी मन्नतें सात आसमानों के आरपार हो जाती हैं। किसी और रुत की बाट नहीं जोहते हम।

फिर एक दिन चिड़िया धूल को अपने पंखों पर उड़ाकर इशारा करती है कि हवाएं अब भरी-भरी बहने वाली हैं। जंगल में प्राणियों की पुकार की आवाज़ें, पुलकती ध्वनियों में बदल जाती हैं। खेतों के गिर्द जमा हो जाते हैं। गांव और शहर खुलकर हाथ उठा देते हैं।

मेघ घुमड़ते आसमान पर हैं, बरसते ज़मीन पर, लेकिन भीग दिल की मिट्टी जाती है। बूंदों की लड़ियां बरसाते बादल सारी क़ायनात को सजा देती हैं। पेड़ की पत्तियों से फिसलती शरारती बूंदों की खिलखिलाहट में पायल की-सी खनक होती है। बारिश आती है, तो सबकुछ धो-पोंछ कर रख जाती है।

बारिश सबकुछ जोड़ देती है। कितनी बड़ी खूबी है ये। जब आती है, तो सब एकबारगी अपनी खिड़की के बाहर देख लेते हैं, फिर भूल जाते हैं और वो सबकुछ भिगोती रहती है। मानो आई ही हो नया रचने, हरा भरने।
हम बारिश से हो पाते, काश।

बूंद-बूंद में अस्तित्व को सम्भालना जानते। किसी के बुलावे की राह देखे बगैर, बिना किसी अहं के आ जाते। बस, आ जाते और रह जाते। जैसे बेटियां घर आती हैं। बहुत लाड़ वाली बेटियां। ठुनककर बरसते, लपककर छुप जाते। हवाओं से होड़ लगाते। निर्जीव भूरी धरा पर छमकते और ज़िंदगी ले आते।

इस गांव से उस गांव, इस शहर से उस शहर, बंजारों से घूमते। दुआ मांगते हाथों को तर कर देते, भीगी मुस्कानें संजो लेते। गलियों में कुलांचे मारते बचपन की नावों के नीचे धारा बन जाते। उनकी किलकारियों में अपनी बौछारें जोड़ देते।

आसमान में आते ही रसोई की गुनगुनाहट की वजह बनते। गति पर इतराते मानव को बता देते कि कभी थम जाना भी पड़ता है। याद दिला देते कि आसमान के आगे झुकना पड़ता है। फिर कुछ देर बाद यूं छोड़ देते गति को, जैसे कोई बच्च माफ कर देता है, पुलककर, किलककर, मुस्कुराता भागता है कि देखा, रोक दिया था न। अब जाओ। हम बारिश हो सकते हैं क्या? काश..!!

dharmraksha द्वारा सावन में प्रकाशित किया गया

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